शिला देवी मंदिर
शिला देवी मंदिर राजस्थान में आमेर के महल में स्थित एक छोटा-सा मंदिर है। शिला देवी जयपुर के कछवाहा वंशीय राजाओं की कुल देवी रही हैं। मंदिर शिला माता के 'लक्खी मेले' के लिए प्रसिद्ध है। नवरात्र में यहां भक्तों की भारी भीड़ माता के दर्शनों के लिए आती है। वर्तमान मंदिर में राजकीय गुणों के सभी अंश और धार्मिक संस्थानों की प्राचीन वस्तुशिल्प शैली के मूल्य विद्यमान हैं। शिला देवी के पार्श्व में गणेश और मीणा कुल की देवीमाता 'हिंगला' की मूर्तियाँ हैं। नवरात्रों में यहाँ दो मेले लगते हैं। इनमें देवी को प्रसन्न करने के लिए पशुओं की बलि दी जाती है।
स्थिति
आमेर महल के जलेब चौक के दक्षिणी भाग में शिला माता का छोटा, लेकिन ऐतिहासिक मंदिर है। शिला माता राजपरिवार की कुल देवी हैं। शिला माता का मंदिर जलेब चौक से दूसरे स्तर पर मौजूद है। यहां से कुछ सीढ़ियाँ मंदिर तक पहुंचती हैं। शिला देवी अम्बा माता का ही रूप हैं। कहा जाता है कि आमेर का नाम अम्बा माता के नाम पर ही 'अम्बेर' पड़ा था। एक शिला पर माता की प्रतिमा उत्कीर्ण होने के कारण इसे शिला देवी कहा जाता है।
निर्माण
शिला देवी मंदिर में सम्पूर्ण कार्य संगमरमर के पत्थरों द्वारा करवाया गया है, जो महाराज सवाई मानसिंह द्वितीय ने 1906 में करवाया था। पहले यह चूने का बना हुआ था। इस मन्दिर की विशेषता है कि यहाँ प्रतिदिन भोग लगने के बाद ही पट्ट खुलते हैं। यहाँ विशेष रूप से गुजियाँ व नारियल का प्रसाद चढ़ाया जाता है।
किवदन्तियाँ
वर्तमान शिला देवी मंदिर में राजकीय गुणों के सभी अंश और धार्मिक संस्थानों की प्राचीन वस्तुशिल्प शैली के मूल्य विद्यमान हैं। प्रतिमा का टेढ़ा चेहरा इसकी विशेषता है। मंदिर में 1972 तक पशु बलि दी जाती थी, लेकिन जैन धर्मावलंबियों के विरोध के चलते यह बंद कर दी गई। इस मंदिर में शिला देवी की मूर्ति के बारे में कई तरह की कथाएँ प्रचलित हैं-
मंदिर के प्रवेश द्वार पर लगे पुरातत्वीय विवरण के अनुसार इस मूर्ति को राजा मानसिंह बंगाल से लेकर आए थे। कहा जाता है कि केदार राजा को पराजित करने के प्रयत्न में असफल रहने पर मानसिंह ने युद्ध में अपनी विजय के लिए उस प्रतिमा से आशीर्वाद माँगा। इसके बदले में देवी ने राजा केदार के चंगुल से अपना आपको मुक्त कराने की मांग की। इस शर्त के अनुसार देवी ने मानसिंह को युद्ध जीतने में सहायता की और नामसिंह ने देवी की प्रतिमा को राजा केदार से मुक्त कराया और अम्बेर (आमेर) में स्थापित किया।
एक अन्य कथा के अनुसार मानसिंह ने राजा केदार की कन्या से विवाह किया और देवी की प्रतिमा को भेंट स्वरूप प्राप्त किया। लेकिन यह निश्चित है कि वर्तमान मूर्ति समुद्र में पड़े हुए एक शिलाखण्ड से निर्मित है और यही कारण है कि मूर्ति का नाम शिला देवी है।[1]
एक अन्य मान्यता के अनुसार यह माना जाता है कि यह मूर्ति समुद्र में पड़ी हुई थी और राजा मानसिंह इसे समुद्र में से निकालकर लाये थे। मूर्ति शिला के रूप में ही थी और काले रंग की थी। राजा मानसिंह ने इसे आमेर लाकर विग्रह शिल्पांकित करवारकर प्रतिष्ठित करवा दिया था।
देवी का स्वरूप
पहले माता की मूर्ति पूर्व की ओर मुख किये हुए थी। जयपुर की स्थापना किए जाने पर इसके निर्माण में अनेक विघ्न उत्पन्न होने लगे। तब राजा जयसिंह ने अनुभवी पण्डितों की सलाहनुसार मूर्ति को उत्तराभिमुख प्रतिष्ठित करवा दिया, जिससे जयपुर के निर्माण में कोई अन्य विघ्न उपस्थित न हो, क्योंकि मूर्ति की दृष्टि तिरछी पढ़ रही थी। इस मूर्ति को वर्तमान गर्भगृह में प्रतिष्ठित करवाया गया है, जो उत्तराभिमुखी है। यह मूर्ति काले चमकीले पत्थर की बनी है और यह एक पाषाण शिलाखण्ड पर बनी हुई है। शिला देवी की यह मूर्ति महिषासुर मंदिनी के रूप में प्रतिष्ठित है। मूर्ति सदैव वस्त्रों और लाल गुलाब के फूलों से आच्छादित रहती है, जिससे सिर्फ मूर्ति का मुहँ व हाथ ही दिखाई देते है। मूर्ति में देवी महिषासुर को एक पैर से दबाकर दाहिनें हाथ के त्रिशूल से मार रही है। इसलिए देवी की गर्दन दाहिनी ओर झुकी हुई है। इसी मूर्ति के ऊपरी भाग में बाएं से दाएं तक अपने वाहनों पर आरूढ़, गणेश, ब्रह्मा, विष्णु, शिव व कार्तिकेय की सुन्दर किन्तु छोटे आकार की मूर्तियां भी बनी हुई हैं। यह मूर्ति चमत्कारी मानी जाती है। शिला देवी की बायीं ओर अष्टधातु की हिंगलाज माता की मूर्ति भी बनी हुई है।
जयपुर के शासकों को शिला देवी में अगाध विश्वास है। मुख्य मंदिर के प्रवेश द्वार पर दस महाविद्याओं और नवदुर्गा की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं। मंदिर के अन्दर कलाकार धीरेन्द्र घोष ने महाकाली और महालक्ष्मी की सुन्दर चित्रकारी की है। मंदिर के जगमोहन भाग में चाँदी की घंटी बंधी हुई है। इसे भक्तगण देवीपूजा के पूर्व बजाते हैं। मंदिर के कुछ भाग एवं स्तम्भों में बंगाली शैली दष्टिगोचर होती है।
मेला आयोजन
शिला देवी के पार्श्व में गणेश और मीणा कुल की देवीमाता हिंगला की मूर्तियाँ हैं। यहाँ वर्ष में दो बार चैत्र और आश्विन के नवरात्र में मेला लगता है। माता का विशेष श्रंगार किया जाता है।। इनमें देवी को प्रसन्न करने के लिए पशुओं की बलि दी जाती है। उदयपुर के राज परिवार के सदस्य और भूतपर्व जयपुर रियासत के सामन्तगण नवरात्र के इस समारोह में सम्मिलित होते हैं।
दर्शन
सभी आने वाले भक्तों के लिए दर्शन की विशेष सुविधा का प्रबन्ध किया जाता है। सभी भक्त पंक्तिबद्ध होकर बारी-बारी से दर्शन करते है। भीड़ अधिक होने पर महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग पंक्तियां बनाकर दर्शन का प्रबन्ध किया जाता है। मन्दिर की सुरक्षा का सारा प्रबन्ध पुलिस अधिकारियों द्वारा किया जाता है। शिला देवी मन्दिर में दर्शन के बाद बीच में भैरव मन्दिर बना हुआ है, जहाँ माँ के दर्शन के बाद भक्त भैरव दर्शन करके अपनी यात्रा को सफल बनाते हैं। मान्यता के अनुसार माँ के दर्शन तभी सफल होते हैं, जब भक्त भैरव दर्शन करके नीचे उतरता है। क्योंकि भैरव का वध करने पर भैरव ने अन्तिम इच्छा में माँ से यह वरदान मांगा था कि आपके दर्शनों के उपरान्त मेरे दर्शन भी भक्त करें ताकि माँ के नाम के साथ भैरव का नाम भी लोग याद रखें और माँ ने भैरव की इस इच्छा को पूर्ण कर उसे यह आर्शीवाद प्रदान किया था।
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