पोकरण का किला
पोकरण का किला पश्चिमी राजस्थान के प्राचीनतम किलों में से एक है। जोधपुर और जैसलमेर राज्य की सीमा पर अवस्थित होने के कारण यह सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था। इसी वजह से यह दुर्ग दोनो राज्यों के मध्य संघर्ष का बड़ा कारण बना। लगभग 90 वर्षों को छोड़कर यह किला जोधपुर राज्य के अधीन रहा। अल्पकाल के लिए यह राव मालदेव के समय सुल्तान शेरशाह सूरी के समय दिल्ली सल्तनत के अधीन रहा जिसने राव मालदेव का पीछा करते हुए पोकरण पर अधिकार किया और अपना एक थाना यहां स्थापित किया। कुछ समय के लिए यहाँ मुगलवंशी औरंगजेब का भी अधिकार रहा।
बालागढ़ के रूप में जाना जाने वाला पोखरण किला 14 वीं सदी में निर्मित एक प्राचीन किला है।यह स्मारक थार रेगिस्तान में स्थित है। यह एक प्राचीन ऐतिहासिक व्यापार मार्ग पर स्थित है जहां से मसाले, नमक, और रेशम का फारस और अन्य देशों को निर्यात किया जाता था। यह राठौड़ वंश के चम्पावत शासकों का किला है। किले का गौरवशाली अतीत और इतिहास भारत तथा विदेश के विभिन्न भागों से पर्यटकों को बड़ी संख्या में आकर्षित करता हैं।
यात्री यहां सुंदर लाल बलुआ पत्थर का महल, पारंपरिक झरोखे तथा भव्य टावरों को देख सकते हैं। वर्तमान में, ठाकुर नागेन्द्र सिंह पोखरन व उनकी पत्नी ठकुरानी यशवंत कुमारी पोखरन ने खुशी से आगंतुकों के लिए किले के द्वार खोल रखे हैं।यह किला मुगल और वास्तुकला के राजपूत शैली का एक शानदार उदाहरण है। किले में हथियार, कपड़े, चित्र, और हस्तशिल्प के शाही संग्रह को प्रदर्शित करता एक संग्रहालय है। इसके अलावा, यहाँ एक शानदार पुस्तकालय है जिसमें महान राव बहादुर राजश्री, ठाकुर चैन सिंह जी पोकरन से सम्बद्ध पुस्तकों का अच्छा संग्रह है।
पोकरण के किले का निर्माण किसने और कब करवाया, इससे जुडे़ अनेक मिथक प्रचलित है। किन्तु इस बात को लेकर सर्वसम्मति है कि पोकरण किला का जो वर्तमान स्वरूप है, वह इसकी स्थापना के समय ऐसा नहीं रहा होगा। पोकरण किले का वर्तमान स्वरूप एक क्रमिक प्रक्रिया रही होगी। पोकरण किले का इतिहास का पता लगाने से पूर्व हमें पोकरण कस्बे या शहर का इतिहास खंगालना होगा।
पोकरण की विशिष्ट भौगोलिक परिस्थितिया निम्न भूमि-जल की उपलब्धता, यहां की मिट्टी की भिन्न प्रकृति, मरू बालूका मिट्टी आदि है। मिट्टी के टीबों की अनुपस्थिति चारों और चट्टानी क्षेत्र से निर्मित छोटा अपवाह तंत्र इत्यादि लक्षणों के कारण यहां निश्चित ही प्राचीन बसावट रही होगी। प्राचीन काल और मध्यकाल में दूसरे स्थानों की अपेक्षा यहां जल की उपलब्धता अवश्य ही काफी अच्छी थी। जोधपुर के राव सूजा के पुत्र नरा जिसे फलौदी प्राप्त थी, पोकरण की जल उपलब्धता की वजह से ही यहां अधिकार करने हेतु प्रेरित हुआ। स्पष्ट है कि आबादी बसावट के लिए यहां की परिस्थितियाँ अनुकूल थी।
श्री विजयेन्द्र कुमार माथुर ने पोकरण को महाभारतकालीन पुष्कराराण्य नगर माना जहां उत्सवसंकेत गण रहा करते थे। इस मान्यता की स्वीकृति से पोकरण का इतिहास ईसा से कई शताब्दी पूर्व चला जाता है। उस काल में भी लोग प्रशासनिक केन्द्र के रूप में दुर्ग या गढि़या बनाया करते थे। अतः पोकरण में किला महाभारत काल में ही बन गया होगा। श्री विजयेन्द्र कुमार माथुर ने श्री हरप्रसाद शास्त्री को उद्घृत किया जिनके अनुसार महरौली (दिल्ली) के प्रसिद्ध लौह स्तम्भ का चन्द्र वर्मा और समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति का चन्द्र वर्मा एवं मंदसौर अभिलेख (404-05 ई.) का चन्द्रवर्मा यहीं का शासक था। जब शासक था तो उसका प्रशासनिक केन्द्र दुर्ग भी अवश्य ही रहा होगा। पोकरण से प्राप्त 1013 ई. के अभिलेख से इस क्षेत्र में पहले गुहिलों और फिर परमारों के वर्चस्व की ओर इशारा करते हैं। इसके बाद लगभग तीन शताब्दी से भी अधिक समय तक यहां परमारों का राज रहा। निश्चित रूप से परमारों के समय यहां कोई गढ़ या छोटी गढ़ी रही होगी। उस काल में परमारों द्वारा पश्चिमी राजस्थान में दुर्ग श्रृंखला बनाए जाने के निश्चित प्रमाण मिलते हैं। कालान्तर में पंवार पुरूरवा ने नानग छाबडा को गोद लिया जिससे पोकरण में छाबड़ा वंश का शासन प्रारंभ हुआ।
मुहता नैणसी जनश्रुति के आधार पर भैरव राक्षस द्वारा छाबड़ा वंशी शासक महिध्वल को पकड़ कर मार डालने का वर्णन करता है। यह घटना तेरहवीं शताब्दी के प्रारंभ की रही होगी। इस घटना के बाद पोकरण भैरव राक्षस के भय से उजड़ गया। कालान्तर में तेरहवीं शताब्दी के चैथे पांचवे दशक में तंवर अजमाल जी ने राव मल्लिनाथ जी से पोकरण बसाने की स्वीकृति ली।
उन्होंने पंवारों (परमार) के दुर्ग में आश्रय लेकर पोकरण पुनः बसाने की स्वीकृति ली। पंवारों (परमार) के दुर्ग में आश्रय लेकर पोकरण पुनः बसाने के प्रयास प्रारंभ किये। इसी दौरान अपनी किशोरावस्था में (लोककथाओं के अनुसार) अजमाल तंवर के पुत्र रामदेव ने भैरव राक्षस को पराजित कर सिन्ध भगा दिया। संभवतः अजमाल जी, वीरमदेव जी तथा रामदेवजी द्वारा दुर्ग का पुनर्निमाण करवाया गया। कुछ समय पश्चात् तंवरों ने अपने वंश की एक कन्या राव मल्लिनाथ के पौत्र हमीर जगपालोत (पोकरणा राठौड़ों के आदि पुरुष) से ब्याही। विवाह के पश्चात् रामदेव जी ने कन्या से कुछ मांगने के लिए कहा। हमीर जगपालोत के कहे अनुसार उसने गढ़ के कंगूरे मांग लिए। रामदेवजी ने उदारता पूर्वक इसे स्वीकार कर लिया जिससे पोकरण गढ़ पर राव हम्मीर का अधिकार हो गया। कालान्तर में जोधपुर के शासक राव सूजा के पुत्र नरा ने छल से पोकरण दुर्ग पर अधिकार कर लिया। उसने पोकरण से कुछ दूर पहाड़ी पर किला बनाकर सातलमेर बसाया। पोकरण गढ़ पर अपना अधिकार रखा किन्तु आबादी को सातलमेर स्थानान्तरित कर दिया। 1503 ई. के लगभग पोकरणा राठौड़ों से हुए युद्ध में नरा वीरगति को प्राप्त हुआ जिससे पोकरण-सातलमेर दुर्गों पर पोकरणा राठौड़ों का अधिकार हो गया। यह अधिकार अल्पकालिक स्थापित हुआ। क्योंकि जोधपुर के राव सूजा ने उन्हें परास्त कर खदेड़ दिया। कालान्तर में 1550 ई. में राव मालदेव ने पोकरण सातलमेर दुर्गों पर अधिकार कर लिया। उसने सातलमेर के दुर्ग को नष्ट कर दिया तथा पोकरण के पुराने गढ़ का पुनर्निर्माण करके उसे सुदृढ़ स्वरूप दिया।
सातलमेर गढ़ के पत्थरों को मेड़ता भिजवाकर मालकोट बनवाया। कुछ वर्षों बाद जब मारवाड़ पर मुगल प्रभुत्व स्थापित हो गया तब राव चन्द्रसेन ने एक लाख फदिये में पोकरण दुर्ग और उससे लगे क्षेत्र जैसलमेर के भाटियों को गिरवी रूप में दे दिए। अनन्तर 100 वर्षों के बाद महाराजा जसवंतसिंह के समय मुहता नैणसी के नेतृत्व में आई एक सेना ने पोकरण पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार पोकरण दुर्ग पर प्रभुत्व बदलता रहा और अन्ततः स्थायी रूप से आजादी तक जोधपुर राज्य के स्वामित्व में रहा। महाराज अजीतसिंह के समय जब मारवाड़ पर मुगल प्रभुत्व स्थापित हुआ था, पोकरण में एक थाना स्थापित किया गया। महाराजा अभयसिंह के समय पोकरण के नरावत राठौड़ों के विद्रोह करने पर बीठलदासोत चांपावत महासिंह को यह दुर्ग और इससे लगे 72 गांव पट्टे में दिए गए। ठा. सवाईसिंह के समय दुर्ग का कुछ हिस्सा क्षतिग्रस्त हो गया, तब महाराज विजयसिंह ने राजकीय खजाने से इस दुर्ग का पुनर्निर्माण करवाया। 19 वीं शताब्दी में ठा. मंगलसिंह ने दुर्ग के अन्दर की एक पुरानी इमारत को गिरवाकर आधुनिक स्थापत्य विशेषताओं का समन्वय करके मंगल निवास बनवाया।
Post A Comment:
0 comments: